Black Quarter लंगडा बुखार

साधारण भाषा में जहरबाद, फडसूजन, काला बाय, कृष्णजंधा, लंगड़िया, एकटंगा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन नमी वाले क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता है। मुख्य रूप से इस रोग से गाय, भैंस एवं भेंड़ प्रभावित होती है।विशेषतः गायों की एक जीवाणु जनित बिमारी है जिसमे मांसपेशियों में हवा भरने के साथ साथ सूजन आजाती है । भैंस इस बिमारी से बहुत कम ग्रसित होती है यह रोग छह माह से दो साल तक की आयु वाले पशुओं में अधिक पाया जाता है। यह रोग 'लंगड़ी बीमारी' के नाम से प्रसिद्ध है। यह गौ जाति में प्रायः तथा भैस और भेड़ों में कभी-कभी होने वाला छिटपुट अथवा महामारी प्रकृतिवाला जीवाणु (बैक्टिरिया) से पैदा होने वाला पशु रोग है (clostridium choviai bacteria)जिसमें साधारण ज्वर तथा मांसल भाग का दर्दयुक्त सूजन एवं लंगड़ापन प्रमुख लक्षण है। युवा तथा स्वस्थ पशु ज्यादा प्रभावित होते हैं।

रोग के लक्षण

यह रोग गो-पशुओं में अधिक होता है। इस रोग में पशु को तेज बुखार आता है तथा उसका तापमान १०६ डिग्री फॉरेनाइट से १०७ फॉरेनाइट तक पहुंच जाता है। पशु सुस्त होकर खाना पीना छोड देता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है। जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है या फिर बैठ जाता है। गैस जमा होने के कारण सूजन वाले स्थान को दबाने पर कड़-कड़ की आवाज़ आती है। पशु चलने में असमर्थ होता है। यह रोग प्रायः पिछले पैरों को अधिक प्रभावित करता है एवं सूजन घुटने से ऊपर वाले हिस्से में होती है। यह सूजन शुरू में गरम एवं कष्टदायक होती है जो बाद में ठण्ड एवं दर्दरहित हो जाती है। पैरों के अतिरिक्त सूजन पीठ, कंधे तथा अन्य मांसपेशियों वाले हिस्से पर भी हो सकती है। सूजन के ऊपर वाली चमडी सूखकर कडी होती जाती है। पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने से पशु की मृत्यु हो जाती है। इस बीमारी में प्रोकेन पेनिसिलीन काफी प्रभावशाली है। इस बीमारी के रोग निरोधक टीके लगाए जाते है। मृत्यु दर : 80-100 प्रतिशत।

रोकथाम एवं बचाव

वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका लगवा लेना चाहिए। यह टीका पशु को ६ माह की आयु पर भी लगाया जाता है। रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग कर देना चाहिए। भेडों में ऊन कतरने से तीन माह पूर्व टीकाकरण करवा लेना चाहिये क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है जिससे रोग की संभावना बढ जाती है। सूजन को चीरा मारकर खोल देना चाहिये जिससे जीवाणु हवा के सम्पर्क में आने पर अप्रभावित हो जाता है। बीमारी विशेष क्षेत्र में मिटटी के ऊपरी तह को भूसा के साथ जलाने से रोग के जीवाणुओं का निराकरण करने में मदद मिलती है शव को दबाने के समय उस पर चुना दाल देना चाइये

उपचार

संक्रमण की शुरूआती अवस्था में उपचार प्रभावी हो सकता है फिर भी अधिकांश मामलों में उपचार लाभदायक नहीं होता । पेनिसिलीन, सल्फोनामाइड, टेट्रासाइक्लीन ग्रुप के एंटिबा योटिक्स का सपोर्टिव औषधि के साथ उपयोग, बीमारी की तीव्रता तथा पशु की स्थिति के अनुसार लाभकारी है। सूजन वाले भाग में चीरा लगाकर 2 प्रतिशत हाइड्रोजन पेरोक्साइड तथा पोटाशियम परमैंगनेट से ड्रेसिंग किया जाना लाभकारी है।